
काफ़ी समय लग गया ये किताब पढ़ने में। बहुत ही बेहतरीन किताब लिखी है शाजी जमाँ साहब ने। अब इस किताब को ऐतिहासिक दस्तावेज माना जाए कि उपन्यास, इस बेमानी बहस में मैं नही पड़ना चाहता क्योंकि शाजी साहब खुद लिखते हैं, ‘यह उपन्यास इतिहास से कितना दूर है या कितना पास, इसका कोई आसान जवाब नहीं है।……इतना ही कह सकता हूँ की इस उपन्यास की एक एक घटना, एक एक किरदार, एक एक संवाद इतिहास पर आधारित है।’ किताब में लेखक द्वारा किया गया रीसर्च पूरी तरह उभर कर आता है। जहां तक मेरी व्यक्तिगत राय है, मेरे हिसाब से इतिहास इसी तरह लिखी जानी चाहिए, ख़ास कर अगर आप ऐतिहासिक किरदारों को केंद्र में रख कर इतिहास लिख रहे हों। अकबर को जानना हो तो ये किताब पढ़िए। आज के इस दौर में जब लोग नाम से मज़हब और मज़हब से ज़िंदा लोगों तक के बारे में अपनी राय बना लेते हैं, तो अकबर जिसका नाम ख़ालिस मुसलमान था, जो बादशाह रहा हो, जिसका दादा बाबर रहा हो, जिसका एक परपोता औरेंगजेब रहा हो, उसके बारे में एक क़िस्म की राय बना लेना कोई मुश्किल और आश्चर्य की बात तो नहीं… ये किताब इरफ़ान हबीब टाइप लोगों की लिखी किताब नहीं है जो मूलतः पोलिटिकल इतिहास लिखते हैं…बरक्स उसके, ये अकबर के साम्राज्य में मुग़लिया सल्तनत के विस्तार को बहुत संक्षिप्त तरीक़े से बताती है, ये रु व रु कराती है आपको अकबर – इंसान से, कैसा था अकबर, उसके दोस्त और अज़ीज़ कौन थे, उसका दरबार कैसा था, उसके अंतर द्वन्दों को…
अकबर के कई पहलू थे; बादशाह के किरदार से उसे देखें और समझें, तो वो मध्य काल के किसी भी बादशाह की तरह ही था, बादशाहत का दम्भ था उसके, राज्य का विस्तार चाहता था, ग़ुरूर था, शराब नोशि करता था, हरम में कई बीवियाँ और बाँदियाँ थीं, गाली भी बहुत देता था, गाँडू और हरामज़ादा भी…लेकिन ये सब चीज़ें ही अकबर को डिफ़ाइन नहीं करतीं क्योंकि ये तो हर मध्यकालीन बादशाह और राजा महाराजा की फ़ितरत और रहन सहन का हिस्सा थीं। अगर हर चीज़ को कॉंटेक्स्ट में देखें तो फिर, जैसे आज के राजनीति के कुछ तक़ाज़े हैं और जैसे एक राजनीतिक दल साफ़ सुथरी राजनीति करने आयी पर फिर तक़ाज़ों से समझौता कर ही लिया…. अकबर का बाहरी व्यक्तित्व ही उसकी पहचान नहीं हैं। तो वो फिर क्या थीं खूबियाँ जिसने कई इतिहासकारों ने उसे ‘महान’ का दर्जा दे दिया। इन में सबसे अहम थी उसकी जिज्ञासा, सच जानने और समझने की उसकी चाहत। मध्ययुग में इस्लामिक धर्म गुरुओं के ख़िलाफ़ जाना, जिसके चलते उसे ‘काफिर’ बादशाह तक करार दे दिया गया, उसके द्वारा मक्का को भेजे गया तोहफ़े लौटा दिए गए, जहां उसके सल्तनत के शुरुआती दिनों में अब्दु नबी ने इस बात पर उसे छड़ी तक मार दी थी कि उसने भगवा फटका पहना था, बाद में उसी अब्दु नबी को गाली देते हुए क़ैद की सजा सुनाना…अपने सुलह कुल के फ़लसफ़े को आगे बढ़ाने के लिए उसने हर मज़हब को सही तरह से समझने की भरपूर कोशिश की, चाहे वो हिंदू हो, जैन हो, ईसाई हो…उन सब से प्रभावित होकर उसने ऐसे रीति रिवाज अपना लिए की कई उसे मुसलमान मानने को तय्यार नहीं रहे…वो सूरज का उपासक बन गया, पुनर्जनम में यक़ीन करने लगा, गौ हत्या पे पाबंदी लगा दी, प्याज़ लहसुन खाना छोड़ दिया, जैनियों के प्रभाव में, मछली आदि मारने ओर कुछ तालाबों पे रोक लगा दी ईसाई पादरियों को पुर्तगाल से बुलाया, और जब बेटे मुराद ने किताब माँगी जिसको पढ़ कर राज्य और खुद का ज्ञान हो तो उसने उसे महाभारत थमा दी। हिंदू तो मानने लगे की बादशाह पिछले जनम में ब्राह्मण मुकुंद थे…पादरी जब बहुत कोशिश के बाद बादशाह को ईसाई नहीं बना पाए तो और उनसे जाने की इजाज़त माँगी, ये कहते हुए की हमारा आपके पास आना व्यर्थ रहा तो बादशाह ने एक काबिल ए तारीफ़ बात कही, ‘अगर आप हमारे इलावा किसी भी बादशाह के समय आते और ये कहते की अल्लाह सच्चा ख़ुदा नहीं है, तो आपका सर मुल्ला कलम कर चुके होते। हमारे रियासत में हर इंसान को अपने मज़हब मानने और अपनी बात रखने की इजाज़त है।’
वैसे तो बादशाहत की बड़ी ऐंठ थी अकबर में पर भगवान/ख़ुदा के बंदों की इज़्ज़त दिल से करता था वो। एक बार भेस बदल कर गोविंद स्वामी को सुनने चला गया, जब पकड़ा गया तो गोविंद स्वामी बिफर उठे, तुमने इस राग को तुच्छ कर दिया, अकबर बोला मैं बादशाह हूँ, गोविंद स्वामी बोल पड़े, तू बादशाह सही पर तेरे राग सुनने से राग तुच्छ हो गया। बादशाह उठ खड़ा हुआ ये बोलते हुए, जिसे तीनों लोग का वैभव फीका लगता है, वो मेरे हुक्म में क्या रहेंगे। ज्ञान की चाहत इस कदर थी की 24000 किताबें ज़मा की हुई थी अकबर ने (मुझे प्रेरणा मिल गयी, मेरे से 4 गुना ज़्यादा किताबें रखी हुई थी महाशय ने, कॉम्पटिशन स्टार्ट्स…) और कई बार उन किताबों को पढ़वाया और सुना। पड़ने लिखने में उसे दिक़्क़त होती थी।
अपने आख़री दिनों में बेहद अकेले रह गया अकबर…अंतिम दिनों में एक दोहा याद किया उसने, ‘पीथल सुं मजलिस गयी, तानसेन सुं राग,हंसिबो रमिबो बोलबो गयो बीरबल साथ’ (पृथ्वी राज राठौड़ के साथ मजलिस चली गयी, तानसेन के जाने के साथ राग, हंसी। बोली और रमना गयी बीरबल के साथ’) अब राष्ट्रवादी सब समझ लें कि ज़िंदगी के अंतिम दिनों में एक मुस्लिम बादशाह किसको याद कर रहा था। और सेक्युलर सब जो इस का ताना देते हैं आज की ……ओ तुम तो ये राग अलापते हो की मुसलमान तुम्हारे दोस्त हैं…(कोई उनसे पूछे की सच्ची दोस्ती से उम्दा और क्या होती है रिश्तों में?)
ये किताब पढ़िए, और हो सके तो इरफ़ान साहब को भी पढ़ाइए…उनको शायद समझ में आ जाए के इतिहास को ट्विस्ट देना ज़रूरी नहीं…और आपको पता चलेगा के अकबर इंसान था…अकबर हिंदुस्तान था…अकबर महान था!